भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद Important Questions BA Political Science Hons Semester-1 in Hindi
0Team Eklavyaमई 17, 2025
उपनिवेशवाद का अर्थ
उपनिवेशवाद के अध्ययन के
उदारवादी दृष्टिकोण
मार्क्सवादी दृष्टिकोण
उत्तर उपनिवेशवादी दृष्टिकोण
राष्ट्रवाद का अर्थ
राष्ट्रवाद के अध्ययन के
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
मार्क्सवादी दृष्टिकोण
निम्नवर्गीय दृष्टिकोण
उपनिवेशवाद की परिभाषा
आर्गेन्सकी - वे सभी क्षेत्र उपनिवेशों के तहत आते हैं जो विदेशी सत्ता द्वारा शामिल हैं एवं जिनके निवासियों को पूरे राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं।"
पार्किन्सन - जब विकसित राष्ट्र अविकसित राष्ट्रों पर अपना राजनीतिक तथा आर्थिक नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं तो ऐसी स्थिति को उपनिवेशवाद कहा जाता है।
उपनिवेशवाद का अर्थ
उपनिवेशवाद (Colonialism) का अर्थ है
एक देश का दूसरे देश या क्षेत्र पर राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना और उसे शोषित करना।
इसमें शक्तिशाली देश अपने हितों के लिए कमजोर देशों पर प्रभुत्व स्थापित करता है।
उपनिवेशवाद के मुख्य तत्व
राजनीतिक नियंत्रण
आर्थिक शोषण
आर्थिक शोषण
शैक्षणिक नियंत्रण
अलोकतांत्रिक
सांस्कृतिक प्रभुत्व
राजनीतिक नियंत्रण:-
उपनिवेशवादी शक्ति उपनिवेशित देश की सरकार, प्रशासन और सैन्य शक्ति पर कब्जा कर लेती है।
राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन होता है और निर्णय लेने की शक्ति उपनिवेशवादी शक्ति के हाथ में आ जाती है।
आर्थिक शोषण:-
उपनिवेशित देशों के प्राकृतिक संसाधनों (जैसे कृषि, खनिज) का अत्यधिक दोहन।
आर्थिक प्रणाली को इस तरह बदला जाता है कि उपनिवेशित देश सिर्फ कच्चा माल आपूर्ति करें और उपनिवेशवादी शक्ति उस पर आधारित उद्योगों से लाभ कमाए।
स्थानीय व्यापार और उद्योग का पतन।
सांस्कृतिक प्रभुत्व:
स्थानीय भाषाओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों को कमतर और अविकसित दिखाया जाता है।
उपनिवेशवादी संस्कृति, भाषा, धर्म और शिक्षा प्रणाली को थोपा जाता है।
सामाजिक शोषण:
नस्लीय असमानता और भेदभाव को बढ़ावा दिया जाता है।
सामाजिक ढांचे में परिवर्तन कर जाति, वर्ग और नस्ल के आधार पर विभाजन किया जाता है।
आधिकारिक भाषाई और शैक्षणिक नियंत्रण:
शिक्षा और प्रशासन में उपनिवेशवादी भाषा और दृष्टिकोण को लागू किया जाता है, जिससे स्थानीय पहचान कमजोर होती है।
स्थानीय आबादी को मानसिक रूप से "हीन" और "पिछड़ा" साबित करने का प्रयास किया जाता है।
उपनिवेशवाद के अध्ययन के लिए
उदारवादी दृष्टिकोण (Liberal )
मार्क्सवादी दृष्टिकोण (Marxist)
उपनिवेशवाद का उदारवादी दृष्टिकोण
भारतीयों को सभ्य बनाना -
उदारवादी मानते हैं की भारत में आधुनिकता का प्रसार उपनिवेशवाद के कारण हुआ था भारतीय सभी नहीं थे इनको उपनिवेशवाद ने सभी बनाने का प्रयास किया
आर्थिक विकास
उपनिवेशवाद के कारण भारत में रेलवे , टेलीग्राफ , आधुनिक शिक्षा , प्रौद्योगिकी का विकास हुआ जिससे भारत की अर्थव्यवस्था का विकास हुआ
वैश्विक व्यापार
उपनिवेशवाद के माध्यम से ही ब्रिटेन ने वैश्विक व्यापार को बढ़ाया और भारत को व्यापार का मुख्य केंद्र बनाया भारत से कच्चे माल का निर्यात होता था और बने हुए माल का आयात होता था
सांस्कृतिक विकास
उपनिवेशवाद के माध्यम से भारत पश्चिमी सभ्यता , पश्चिमी शिक्षा , विज्ञान , तकनीक से परिचित हुआ विचारों का आदान प्रदान हुआ
बेहतर क़ानून व्यवस्था
उपनिवेशवाद के माध्यम से भारत में एकीकृत शासन व्यवस्था लागू की गयी और भारत में एक अच्छी क़ानून व्यवस्था स्थापित की गयी
अत : हम यह कह सकते है की उदारवादियों ने भारत में उपनिवेशवाद के सकारात्मक पहलू पर अधिक ध्यान दिया और नकारात्मक पहलू को अनदेखा किया है
उपनिवेशवाद का मार्क्सवादी दृष्टिकोण
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, औपनिवेशिक राज्य पूंजीवाद का एक अहम हिस्सा होता है।
इसे ऐसा राज्य माना जाता है, जो धनवान वर्ग (बुर्जुआ) के फायदे के लिए काम करता है।
इस दृष्टिकोण से उपनिवेशवाद को एक ऐसी व्यवस्था समझा जाता है, जो आर्थिक और सामाजिक शोषण पर आधारित होती है।
इसका मुख्य मकसद उपनिवेशित देशों के संसाधनों और लोगों के श्रम का उपयोग करके पूंजीपति वर्ग को अधिक मुनाफा देना होता है।
उपनिवेशवाद के तहत, औपनिवेशिक राज्य को एक ऐसे तंत्र के रूप में देखा जाता है, जो आर्थिक शोषण की प्रक्रियाओं को चलाता है।
उदाहरण - भारत में ब्रिटिश शासन ने हमारे देश को केवल कच्चे माल का स्रोत और तैयार माल के बाजार के रूप में देखा।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संसाधनों का बहुत शोषण किया, जिससे ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति को बढ़ावा मिला।
संसाधनों का दोहन
मजदूरों का शोषण
स्वदेशी उद्योग का पतन
पूँजीवाद
निवेश में कमी
भारत में गरीबी को बढ़ाना
राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद की परिभाषा -
रविंद्रनाथ टैगोर:-
"राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है, जो एक विशेष समुदाय को अपनी संस्कृति, परंपरा और पहचान के
प्रति गर्व करने और उसे बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है।"
गांधी जी:
"राष्ट्रवाद वह है, जो सभी के लिए समान अवसर और स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, न कि दूसरों के प्रति नफरत पैदा करता है।"
राष्ट्रवाद का अर्थ -
राष्ट्रवाद (Nationalism) एक ऐसी विचारधारा है, जो किसी विशेष राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा, प्रेम और समर्थन को दर्शाती है। यह विचारधारा यह मानती है कि एक राष्ट्र अपनी संस्कृति, भाषा, इतिहास और परंपराओं के आधार पर एक स्वतंत्र और स्वायत्त इकाई होनी चाहिए। राष्ट्रवाद के मूल में राष्ट्रीय एकता, स्वाभिमान और अपने देश के विकास के लिए योगदान की भावना होती है।
राष्ट्रवाद का महत्व:
यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है।
स्वाधीनता संग्राम जैसे आंदोलनों को प्रेरित करता है।
देश के विकास और प्रगति के लिए नागरिकों में जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न करता है।
राष्ट्रवाद के अध्ययन के विभिन्न दृष्टिकोण -
मार्क्सवादी दृष्टिकोण –
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण –
निम्नवर्गीय दृष्टिकोण –
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण –
राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने ब्रिटिश शासन को भारत के लिए अभिशाप मन है
इन्होंने ब्रिटिश के क्रूर रूप को सामने रखा।
ब्रिटिश शासन की आलोचना:
राष्ट्रवादी इतिहासकारों जैसे लाला लाजपत राय, दादाभाई नैरोजी, ए.सी. मजुमदार, और बी.आर. नंदा ने ब्रिटिश शासन के शोषणकारी रूप को उजागर किया।
उन्होंने ब्रिटिश विचार को खारिज किया कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं था।
भारत का गौरवशाली इतिहास:
राष्ट्रवादियों ने भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक धरोहर को उजागर किया।
सम्राट अशोक के समय पूरे भारत में एकता, सांस्कृतिक विकास, और सामाजिक समानता थी।
भारतीय राजाओं ने सर्वहित को प्राथमिकता दी।
ब्रिटिश शोषण के प्रभाव:
राष्ट्रवादियों ने बताया कि भारत के पतन का मुख्य कारण ब्रिटिश शासन का आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण था।
दादाभाई नैरोजी ने अपनी पुस्तक Poverty and UnBritish Rule in India में "निष्कासन सिद्धांत" (Drain of Wealth) के जरिए ब्रिटिश शोषण को उजागर किया।
आर.सी. दत्त ने The Economic History of India में भारत के आर्थिक शोषण की चर्चा की।
1857 की क्रांति:
बी.डी. सावरकर ने इसे भारत का "प्रथम स्वतंत्रता संग्राम" कहा।
एस.बी. चौधरी और ताराचंद जैसे इतिहासकारों ने भी इसे स्वतंत्रता की जंग माना।
राष्ट्रवाद का उदय:
19वीं सदी में भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ें मजबूत हुईं।
बिपिन चंद्र के अनुसार, औपनिवेशिक काल में राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद के बीच संघर्ष था।
राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने ब्रिटिश शासन को शोषणकारी और खुद को श्रेष्ठ मानने वाला बताया।
निष्कर्ष:
राष्ट्रवादियों ने भारत के गौरवशाली इतिहास और ब्रिटिश शासन की क्रूरता को उजागर कर एक स्पष्ट और सशक्त दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण –
मार्क्सवादी विचारक ब्रिटिश शासन को बुराई के रूप में देखते है
रजनी पाम दत्त का योगदान:
अपनी पुस्तक India Today में रजनी पाम दत्त ने उपनिवेशवाद को भारतीय गरीबी का कारण बताया।
उन्होंने ब्रिटिश शासन को तीन चरणों में बांटा:
1. व्यापारिक पूंजीवाद: EIC द्वारा व्यापार का नियंत्रण।
2. औद्योगिक पूंजीवाद: सामाजिक और आर्थिक शोषण।
3. वित्तीय पूंजीवाद: उद्योगों पर एकाधिकार और भारतीय धन की लूट।
भारत सूती कपड़ों के निर्यातक से केवल कच्चे कपास के आयातक में बदल गया।
ए.आर. देसाई का दृष्टिकोण:
Social Background to Indian Nationalism में देसाई ने बताया कि ब्रिटिश शासन ने राष्ट्रवाद को प्रेरित किया।
धर्म सुधार आंदोलनों ने राष्ट्रवादी चेतना को बढ़ावा दिया।
राष्ट्रवाद के पाँच चरण (देसाई के अनुसार):
1857-1885:
आधुनिक शिक्षा से बुद्धिजीवी वर्ग का उदय।
सुधार आंदोलन ने राष्ट्रवाद की नींव रखी।
1885-1905
कांग्रेस का गठन।
आर्थिक समस्याओं और बेरोजगारी से असंतोष बढ़ा।
1905-1918
उग्र राष्ट्रवाद का उदय।
युवाओं की सक्रियता और सरकार का दमन।
1918-1934
गाँधी युग।
जन आंदोलन का विस्तार और समाजवादी विचारों की नींव।
1934-1939
साम्यवादी आंदोलनों का प्रभाव।
किसानों, मजदूरों, छात्रों में जागरूकता।
मार्क्सवादी नजरिया:
भारत का विकास तभी संभव है जब श्रमिकों और किसानों का उद्धार होगा।
आजादी का सही अर्थ तब ही होगा जब समाज में सभी वर्गों को समान अधिकार मिलेंगे।
सर्वहारा वर्ग (शोषित वर्ग) का उत्थान ही सच्चा राष्ट्रवाद है।
निम्नवर्गीय दृष्टिकोण
निम्नवर्गीय विचारधारा सभी विचारधाराओं में सबसे नई है।
यह दृष्टिकोण समाज में हाशिए पर बैठे लोगों- किसान, मजदूर, महिलाएँ, आदिवासी आदि के नजरिए से राष्ट्रवाद को देखते हैं।
रणजीत गुहा का योगदान:
उनकी पुस्तक सबाल्टर्न स्टडीज में उन्होंने अभिजन (कुलीन) और निम्न वर्गों को परिभाषित किया।
अभिजन वर्ग में देशी और विदेशी वर्चस्व वाले दोनों समूह शामिल थे।
गुहा ने बताया कि इतिहास में निम्न वर्ग की उपस्थिति और उनकी स्वतंत्र पहचान का जिक्र नहीं किया गया।
स्वतंत्रता संग्राम में निम्न वर्ग की भूमिका:
निम्न वर्गीय दृष्टिकोण से स्वतंत्रता संग्राम का लेखन किया गया।
इन विचारकों ने कहा कि अभिजन वर्ग और निम्न वर्ग के बीच लगातार वैचारिक संघर्ष चलता रहा।
अभिजन वर्ग ने आम जनता को सिर्फ उपकरण के रूप में देखा।
गुहा की आलोचना:
गुहा ने कहा कि कैम्ब्रिज और राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने केवल अभिजन वर्ग की सफलताओं का जिक्र किया।
किसानों, मजदूरों, और अन्य हाशिए के वर्गों के आंदोलनों का उल्लेख नहीं किया गया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के योगदान पर ज्यादा ध्यान दिया गया, जबकि निम्न वर्ग की भूमिका की अनदेखी हुई।
निम्न वर्ग का संघर्ष:
निम्न वर्ग शोषण झेलते हुए अपनी अस्मिता बचाने की कोशिश कर रहा था।
उनके संघर्ष और योगदान को इतिहास में दबाया गया।
रणजीत गुहा की व्याख्या:
गुहा ने भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास को "कुलीन वर्ग की आध्यात्मिक जीवन गाथा" कहा।
उन्होंने जोर दिया कि निम्न वर्ग के योगदान को भी मान्यता मिलनी चाहिए।
निष्कर्ष:
राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी, और कैम्ब्रिज इतिहास लेखन में केवल अभिजन वर्ग का पक्ष दिखाया गया।
निम्न वर्गीय दृष्टिकोण इतिहास को संतुलित दृष्टि से समझने की कोशिश करता है।
शिक्षा में ब्रिटिश नीति का प्रभाव
शिक्षा पर ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा नीति ने
शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह बदल दिया।
यह नीति आधुनिक शिक्षा प्रणाली को लेकर आई, लेकिन इसने पारंपरिक शिक्षा प्रणालियों को हाशिए पर डाल दिया और सामाजिक व सांस्कृतिक असमानताओं को बढ़ावा दिया।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा के प्रभाव
सकारात्मक
नकारात्मक
सकारात्मक प्रभाव
आधुनिक शिक्षा प्रणाली का परिचय
पश्चिमी पाठ्यक्रम: ब्रिटिश सरकार ने एक संरचित शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की, जिसमें विज्ञान, गणित और मानविकी जैसे विषय शामिल किए गए, जो पारंपरिक रटने वाले तरीकों से अलग थे।
मानक शिक्षा प्रणाली: कलकत्ता, बंबई और मद्रास विश्वविद्यालय (1857) जैसे संस्थानों ने पूरे देश में उच्च शिक्षा को मानकीकृत किया।
शिक्षा अधिनियम: 1813 का चार्टर अधिनियम शिक्षा के प्रचार की दिशा में एक पहल थी, हालांकि इसका उद्देश्य सीमित था।
अंग्रेजी भाषा का प्रसार
अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों को वैश्विक विचारों, नवाचारों और प्रशासनिक तकनीकों तक पहुंचने का अवसर प्रदान किया।
इसने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से जोड़ा।
एक शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग का उदय
शिक्षित भारतीयों का एक वर्ग, मुख्य रूप से शहरी और उच्च वर्ग से, सामाजिक-राजनीतिक सुधारों और स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा।
राजा राम मोहन राय जैसे सुधारवादी नेताओं ने समाज की प्रगति के लिए आधुनिक शिक्षा का समर्थन किया।
महिलाओं की शिक्षा में प्रगति
प्रारंभिक प्रयासों ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया। 1849 में स्थापित बेथ्यून कॉलेज जैसे संस्थान महिलाओं को शिक्षित करने के लिए स्थापित किए गए।
यह महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी की शुरुआत थी, हालांकि प्रगति धीमी रही।
तार्किकता और वैज्ञानिक सोच का प्रसार
शिक्षा में तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर ज़ोर दिया गया, जिसने अंधविश्वास और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती दी।
पश्चिमी उदारवादी विचारों के संपर्क ने समानता, लोकतंत्र और न्याय के लिए आंदोलनों को प्रेरित किया।
नकारात्मक प्रभाव
यूरोप-केंद्रित और अभिजात वर्ग आधारित दृष्टिकोण
मैकॉले का मिनट (1835): थॉमस मैकॉले की नीति ने भारतीय भाषाओं और स्थानीय शिक्षा प्रणालियों को दरकिनार कर दिया और पश्चिमी ज्ञान और अंग्रेजी माध्यम को प्राथमिकता दी।
पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा: गुरुकुल और मदरसे जैसे पारंपरिक शिक्षा संस्थान हाशिए पर चले गए, जिससे भारतीय बौद्धिक परंपराएं धीरे-धीरे खोने लगीं।
शहरी और उच्च वर्ग तक सीमित
शिक्षा मुख्य रूप से शहरी अभिजात वर्ग और विशेष वर्गों तक सीमित रही, जबकि ग्रामीण और हाशिए के समुदायों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
शिक्षा की उच्च लागत और पहुंच में बाधाओं ने सामूहिक भागीदारी को रोका और सामाजिक असमानताओं को बढ़ाया।
प्रशासनिक उपयोगिता पर ध्यान केंद्रित
औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य रचनात्मकता या बौद्धिक स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना नहीं था, बल्कि ब्रिटिश प्रशासन के लिए लिपिकीय और सहायक कर्मचारियों का निर्माण करना था।
दर्शनशास्त्र या राजनीति विज्ञान जैसे विषय, जो भारतीयों को सशक्त बना सकते थे, उन्हें उपेक्षित किया गया।
प्राथमिक और सामूहिक शिक्षा की उपेक्षा
प्राथमिक शिक्षा में न्यूनतम निवेश किया गया, जिससे बड़े पैमाने पर निरक्षरता बनी रही।
वुड्स डिस्पैच (1854), जिसे "भारतीय शिक्षा का मैग्ना कार्टा" कहा जाता है, ने सामूहिक शिक्षा की सिफारिश की, लेकिन इसे जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए।
सांस्कृतिक और पहचान संकट
अंग्रेज़ी और पश्चिमी आदर्शों को बढ़ावा देने से भारतीय अपनी विरासत, भाषाओं और संस्कृति से अलग हो गए।
ब्रिटिश संस्थानों में शिक्षित युवा भारतीय अक्सर पारंपरिक मूल्यों से जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते थे, जिससे एक प्रकार की हीनता की भावना पैदा हुई।
लैंगिक और क्षेत्रीय असमानता
महिलाओं की शिक्षा की शुरुआत तो हुई, लेकिन यह सार्वभौमिक नहीं बन पाई। इस दिशा में संस्थागत समर्थन सीमित था।
ग्रामीण क्षेत्रों और पिछड़े इलाकों को शिक्षा से बाहर रखा गया, जिससे देशभर में शिक्षा का असमान विकास हुआ।
निष्कर्ष –
ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा नीति एक दोहरी विरासत छोड़ गई। इसने आधुनिक शिक्षा और विचारों को पेश किया, जिसने सुधार और राष्ट्रवाद को प्रेरित किया, लेकिन साथ ही पारंपरिक ज्ञान को हाशिए पर डाल दिया, सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा दिया, और औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए शिक्षा को उपयोगितावादी बनाया। स्वतंत्रता के बाद भारत ने इन असमानताओं को दूर करने और पारंपरिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, लेकिन औपनिवेशिक प्रणाली की गहरी छाप आज भी देखी जा सकती है।
1935 का भारत सरकार अधिनियम
1935 के भारतीय अधिनियम की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिए। भारत के संविधान के विकास में इसकी भूमिका और महत्व का मूल्यांकन कीजिए।
1935 का भारत सरकार अधिनियम :
भारत सरकार अधिनियम, 1935, ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण कानून था, जो स्वतंत्रता तक भारत की प्रशासनिक व्यवस्था का आधार बना रहा।
इसका उद्देश्य भारतीय प्रांतों को अधिक स्वायत्तता देना और संवैधानिक सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाना था।
1. अखिल भारतीय संघ की स्थापना
अधिनियम ने एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना का प्रस्ताव रखा, जिसमें शामिल थे:
ब्रिटिश भारतीय प्रांत: जैसे बंगाल, बंबई, मद्रास आदि।
देशी रियासतें: देशी रियासतों को संघ में शामिल होना स्वैच्छिक रखा गया, और उनकी भागीदारी समझौतों पर आधारित थी।
हालांकि, देशी रियासतों ने संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया, जिससे यह योजना लागू नहीं हो पाई।
2. शक्तियों का विभाजन (संघीय योजना)
केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया और तीन सूचियों का प्रावधान किया गया:
संघ सूची: रक्षा, विदेश मामले, और रेलवे जैसे विषय केंद्र के अधीन।
प्रांतीय सूची: पुलिस, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे विषय प्रांतों के अधीन।
समवर्ती सूची: अपराध कानून और विवाह जैसे विषय, जिन पर केंद्र और प्रांत दोनों कानून बना सकते थे, लेकिन केंद्र की प्राथमिकता थी।
3. प्रांतीय स्वायत्तता
प्रांतों को अपने विषयों पर शासन करने के लिए स्वायत्तता प्रदान की गई।
राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करते थे, लेकिन उनके पास कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ थीं।
मंत्रियों ने प्रांतीय विधायिका के प्रति जवाबदेह रहते हुए प्रांतों का शासन संभाला, जो स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
4. द्विसदनीय व्यवस्था का परिचय
छह प्रांतों में द्विसदनीय विधानसभाएँ स्थापित की गईं: बंगाल, बॉम्बे, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम।
इसमें शामिल थे:
ऊपरी सदन (विधान परिषद): आंशिक रूप से निर्वाचित और आंशिक रूप से नामित सदस्य।
निचला सदन (विधान सभा): पूरी तरह निर्वाचित निकाय।
5. पृथक निर्वाचक मंडल और आरक्षण
मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, एंग्लो-इंडियंस और यूरोपीय समुदायों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की प्रणाली जारी रही।
अनुसूचित जातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया।
इस व्यवस्था ने भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा किया।
6. संघीय न्यायालय की स्थापना
एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, जो प्रांतों और केंद्र के बीच विवादों को सुलझाने और संविधान की व्याख्या करने के लिए उत्तरदायी था।
यह स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की दिशा में पहला कदम था।
7. राज्यपालों और वायसराय की विशेष शक्तियाँ
प्रांतों में राज्यपालों और केंद्र में वायसराय के पास व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ थीं:
वे ब्रिटिश हितों के लिए मंत्रियों के निर्णयों को रद्द कर सकते थे।
वायसराय के पास वेटो पावर थी और वह विधायिका की सहमति के बिना कानून लागू कर सकते थे।
इन प्रावधानों ने स्वायत्तता के बावजूद ब्रिटिश नियंत्रण को सुनिश्चित किया।
8. प्रांतों में द्वैध शासन की समाप्ति
1919 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा प्रांतों में लागू द्वैध शासन (डायार्की) को समाप्त कर दिया गया।
प्रांतों में विषयों को आरक्षित और स्थानांतरित श्रेणियों में विभाजित नहीं किया गया।
9. केंद्र में द्वैध शासन की शुरुआत
केंद्र में द्वैध शासन लागू किया गया, जिसमें विषयों को दो भागों में बांटा गया:
आरक्षित विषय: वायसराय के नियंत्रण में (जैसे रक्षा और विदेश मामले)।
स्थानांतरित विषय: मंत्रियों द्वारा नियंत्रित, जो विधायिका के प्रति जवाबदेह थे।
10. मताधिकार का विस्तार
मताधिकार का दायरा बढ़ाया गया, और लगभग 10% जनसंख्या को मतदान का अधिकार दिया गया।
मताधिकार संपत्ति, कर या शिक्षा पर आधारित था, जिससे केवल एक सीमित वर्ग को वोट देने का अधिकार मिला।
11. भारतीय सिविल सेवा (ICS)
भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) को बनाए रखा गया और इसका केंद्रीकृत नियंत्रण जारी रहा।
यह सेवा ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन रही, जो प्रशासनिक निरंतरता सुनिश्चित करती थी।
12. प्रांतों का पुनर्गठन
नए प्रांत बनाए गए:
सिंध को बॉम्बे से अलग किया गया।
ओडिशा को एक अलग प्रांत के रूप में स्थापित किया गया।
बर्मा (अब म्यांमार) को भारत से अलग कर दिया गया।
महत्व
इस अधिनियम ने संघीय शासन और प्रांतीय स्वायत्तता की दिशा में कदम बढ़ाया।
इसने स्वतंत्रता के बाद भारत के संघीय ढांचे की नींव रखी।
हालांकि, यह अधिनियम भारतीयों की पूर्ण स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सका, जिससे स्वशासन की मांग जारी रही।
आलोचना
राज्यपालों और वायसराय की अत्यधिक शक्तियाँ:
राज्यपालों और वायसराय की विवेकाधीन शक्तियों ने प्रांतीय स्वायत्तता को कमजोर किया।
साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व:
पृथक निर्वाचक मंडल की प्रणाली ने साम्प्रदायिक विभाजन को और गहरा किया।
संघ की अनुपस्थिति:
अखिल भारतीय संघ की असफलता ने अधिनियम के दायरे को सीमित कर दिया।
सीमित मताधिकार:
केवल 10% आबादी को मतदान का अधिकार मिलने से बहुसंख्यक जनता प्रतिनिधित्व से वंचित रही।
निष्कर्ष –
1935 का भारत सरकार अधिनियम स्वशासन की दिशा में एक कदम था, लेकिन इसने पूर्ण स्वतंत्रता की मांगों को पूरा नहीं किया। यह ब्रिटिश सरकार के बढ़ते राजनीतिक दबावों को संभालने का एक प्रयास था। इस अधिनियम के प्रावधान, जैसे संघवाद और प्रांतीय स्वायत्तता, स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान को प्रभावित करते हैं, जिससे यह भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बन गया।
1857 का विद्रोह
‘1857 का युद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था।’ चर्चा कीजिए।
1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है।
इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह, या 1857 का विद्रोह कहा जाता है।
यह विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत के विभिन्न हिस्सों में व्यापक असंतोष और विरोध का परिणाम था।
इसे भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली संगठित कोशिश माना जाता है।
1857 का विद्रोह, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह, या भारतीय विद्रोह भी कहा जाता है, ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय सैनिकों और आम जनता का एक बड़ा आंदोलन था।
यह विद्रोह 10 मई 1857 को मेरठ से शुरू हुआ और धीरे-धीरे उत्तर भारत, मध्य भारत, और कुछ अन्य हिस्सों में फैल गया।
विद्रोह के कारण
राजनैतिक कारण
सामजिक और धार्मिक कारण
आर्थिक कारण
सैन्य कारण
राजनीतिक कारण:
ब्रिटिश साम्राज्य की विस्तारवादी नीतियां (डलहौजी की "डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स" नीति)।
भारतीय रियासतों का विलय, जैसे अवध का अधिग्रहण।
देसी शासकों और ज़मींदारों की संपत्ति का हरण।
आर्थिक कारण:
किसानों पर भारी लगान और भू-राजस्व व्यवस्था।
पारंपरिक उद्योग-धंधों का नष्ट होना और भारत को कच्चा माल आपूर्ति करने वाले उपनिवेश में बदलना।
बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी।
सामाजिक और धार्मिक कारण:
भारतीय समाज में हस्तक्षेप, जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, और धार्मिक रीति-रिवाजों में बदलाव।
ईसाई धर्म के प्रसार का डर और भारतीय धर्मों पर खतरे की भावना।
सैन्य कारण:
भारतीय सैनिकों के साथ भेदभाव, कम वेतन और खराब।
नई एनफील्ड राइफल में इस्तेमाल होने वाले कारतूस (जो गाय और सूअर की चर्बी से बने थे) ने धार्मिक भावनाओं को आहत किया।
विद्रोह के प्रमुख केंद्र और नेता
क्षेत्र
दिल्ली
कानपुर
लखनऊ
आरा ( बिहार )
अवध
झाँसी
नेता
बहादुर शाह जफ़र
नाना साहिब
बिज्रिस कद्र
कुंवर सिंह
नवाब वाजिद अली शाह
लक्ष्मीबाई
विद्रोह का दमन:
ब्रिटिश सेना ने अपनी आधुनिक सैन्य तकनीक और रणनीति का उपयोग कर विद्रोह को कुचल दिया।
1858 में ब्रिटिश सरकार ने भारत को सीधे अपने नियंत्रण में ले लिया, और ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया।
1857 के विद्रोह का महत्व:
इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव माना जाता है।
यह दिखाता है कि भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गहरा असंतोष था।
हालांकि यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने बाद के स्वतंत्रता आंदोलनों को प्रेरित किया।
असहयोग आन्दोलन
असहयोग आंदोलन के विशेष संदर्भ में स्वतंत्रता संग्राम के जन लामबंदी में गांधी की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
असहयोग आंदोलन (1920-1922)
असहयोग आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ अहिंसात्मक विरोध का एक बड़ा अभियान था।
यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था और जनता को ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट करने में सफल रहा।
असहयोग आन्दोलन के कारण
जलियावाला बाग़ हत्याकांड
रोलेक्ट एक्ट
खिलाफत आन्दोलन
अंग्रेजो की गलत नीति
जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919):
अमृतसर में जनरल डायर के आदेश पर निहत्थे भारतीयों पर गोलियां चलाई गईं।
इस क्रूरता ने भारतीयों को गहरा झटका दिया और ब्रिटिश शासन के प्रति गुस्सा बढ़ा।
रॉलेट एक्ट (1919):
यह कानून बिना मुकदमे के किसी भी भारतीय को गिरफ्तार करने का अधिकार देता था।
गांधीजी ने इस कानून का विरोध किया और पहली बार सत्याग्रह की रणनीति अपनाई।
खिलाफत आंदोलन (1919-1924):
प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की के खलीफा को हटाने का विरोध करने के लिए भारतीय मुस्लिम समुदाय ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया।
गांधीजी ने इस आंदोलन का समर्थन किया, जिससे हिंदू-मुस्लिम एकता को बल मिला।
ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियां:
भारतीय किसानों और मजदूरों पर भारी कर और शोषण।
परंपरागत उद्योगों का विनाश और भारत को ब्रिटिश उद्योगों का बाजार बनाना।
आंदोलन की औपचारिक शुरुआत:
असहयोग आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1 अगस्त 1920 को हुई, जब गांधीजी और कांग्रेस ने स्वराज प्राप्ति के उद्देश्य से इसे अपनाया।
1920 में नागपुर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आंदोलन को औपचारिक रूप से मंजूरी दी।
असहयोग आंदोलन के उद्देश्य:
ब्रिटिश सरकार को असहयोग के माध्यम से कमजोर करना।
स्वदेशी और स्वावलंबन को बढ़ावा देना।
भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र करना।
सभी जातियों और धर्मों के लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में एकजुट करना।
असहयोग आंदोलन की प्रमुख रणनीतियां:
1. ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार:
सरकारी स्कूल, कॉलेज, अदालतें और अन्य संस्थानों का परित्याग।
वकीलों ने अदालतों में प्रैक्टिस छोड़ दी।
2. विदेशी वस्त्रों और सामान का बहिष्कार:
विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और खादी जैसे स्वदेशी वस्त्र अपनाए गए।
3. सरकारी उपाधियों और पदों का त्याग:
ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई उपाधियों और पुरस्कारों का त्याग किया गया।
उदाहरण: रवींद्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड की उपाधि वापस कर दी।
4. करों का बहिष्कार:
किसानों ने कर देने से इनकार किया।
5. स्वदेशी अपनाना:
चरखे और खादी को बढ़ावा दिया गया।
गांधीजी ने इसे आर्थिक स्वतंत्रता का प्रतीक बताया।
6. शांतिपूर्ण धरना और प्रदर्शन:
अहिंसात्मक तरीकों से जनता ने विरोध किया।
आंदोलन के प्रमुख केंद्र:
1. बंगाल:
विद्रोह का प्रमुख केंद्र, जहां आंदोलन को जनता का व्यापक समर्थन मिला।
2. पंजाब:
जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पंजाब में असंतोष चरम पर था।
3. बिहार और उत्तर प्रदेश:
किसानों और मजदूरों ने आंदोलन में बड़ी भागीदारी दिखाई।
4. महाराष्ट्र और गुजरात:
गांधीजी के प्रभाव में जनता ने बड़े पैमाने पर आंदोलन का समर्थन किया।
असहयोग आंदोलन को वापिस लेना
चौरी-चौरा कांड (5 फरवरी 1922):
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नामक स्थान पर आंदोलनकारियों ने एक पुलिस स्टेशन में आग लगा दी।
इस घटना में 22 पुलिसकर्मी मारे गए।
गांधीजी ने इस हिंसात्मक घटना के कारण आंदोलन को तत्काल समाप्त कर दिया।
असहयोग आंदोलन का ऐतिहासिक महत्व:
यह स्वतंत्रता संग्राम का पहला ऐसा आंदोलन था, जिसमें लाखों भारतीयों ने एकजुट होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई।
आंदोलन ने भारतीय जनता में स्वतंत्रता की भावना को मजबूत किया और स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
निष्कर्ष:
असहयोग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पहला बड़ा आंदोलन था, जिसमें गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण तरीकों से जनता ने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी।
हालांकि यह आंदोलन अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल नहीं हुआ, लेकिन इसने भारत की स्वतंत्रता के लिए मजबूत नींव रखी।