Ads Right Header

B.A. FIRST YEAR हिंदी सिनेमा का अध्ययन यूनिट 1 Chapter- 2 सिनेमा की भाषा और उसके विभिन्न प्रकार NOTES IN HINDI



सिनेमा की भाषा 

जिस प्रकार कोई लेखक किसी विषय को चुनकर क्रमवार वाक्य अनुच्छेदों 
द्वारा कहानी कहता है उसी प्रकार निर्देशक भी विषय अनुसार शॉटस सींस 
एवं सीक्वेंस का क्रमवार संयोजन करता हुआ कहानी को पर्दे पर चित्रित 
करता है हम सिनेमा की मूल भाषा यानी शॉट पर विचार करेंगे साहित्य में 
जो स्थान शब्दों का है फिल्म में वही स्थान शॉट का है


क्रिशचयन मेत्ज के अनुसार 

जहां से साधारण भाषा व्यवस्था की चरम सीमा पूरी होती 
है वहां से सिनेमाई भाषा के रूप की सीमा आरंभ होती है 
क्योंकि फिल्म निर्माण का आरंभ बिंदु (शॉट ) ही वाक्य से आरंभ होता है

शॉट

शॉट सिनेमा की सबसे छोटी इकाई है निर्देशक का कैमरा ऑन होने और ऑफ 
होने के बीच का समय शॉट है दूसरे शब्दों में सिनेमा के पर्दे पर जैसे ही एक 
फ्रेम के बाद कोई और फ्रेम आना उदाहरण के लिए दो व्यक्ति आपस में बात 
कर रहे हैं तो जैसे ही एक व्यक्ति बोलता है निर्देशक का कैमरा उसके संवाद 
और भाव को कैद करता है वह एक शॉट है जैसे ही दूसरा व्यक्ति जवाब देता है 
उसका कैमरा उसकी बातों को रिकॉर्ड करता है वह दूसरा शाट है

शॉट कटअवे

एक शॉट के बाद कट होता है जिसके बाद दूसरा शॉट जोड़ा जाता 
है उसे कटअवे कहते हैं साधारण भाषा साहित्य में जो जगह 
अर्धविराम की है सिनेमा की भाषा में इसे शाट को जोड़ने के 
लिए आया हुआ पॉज या अर्धविराम कह सकते हैं बिना 
शॉटकटवे के सिनेमा के पर्दे पर कहानी कहना मुश्किल है

शॉट के प्रकार

बर्ड आई व्यू शॉट यह फिल्मकार द्वारा किसी लोकेशन को स्थापित करने के
लिए बहुत ऊपर से लिया जाता है सिनेमा में पहले इस तरह के शॉट हेलीकॉप्टर से लिए जाते थे पर आजकल ड्रोन कैमरे से लेते हैं
मास्टर शॉट- इसे establishing shot भी कहते है फिल्म में कहानी किस जगह
की है और किस परिवेश की है यह बताने के लिए अक्सर इस तरह के शॉट का प्रयोग किया जाता है
फुल शॉट इसमें किसी कलाकार के पूरे शरीर को दर्शाया जाता है इसी को
लॉन्ग शॉट भी कहते हैं इसके जरिए कलाकार के हाव-भाव और एक्शन को दिखाया जाता है
मिड शॉट इसमें कलाकार के शरीर का ऊपरी हिस्सा दिखाया जाता है
Mid close up shot इसमें कलाकार के हावभाव को बारीकी से दिखाने के लिए कंधे से चेहरे तक का हिस्सा दिखाया जाता है
एक्सट्रीम क्लोजअप इसमें कलाकार के हाव भाव या उसके विशेष भाव की डिटेल को ज्यादा गौर से दिखाया जाता है
ओवर द शोल्डर शॉट जब दो व्यक्ति आमने सामने बात करते हैं तब एक व्यक्ति के बोलने पर दूसरे व्यक्ति के कंधे से बगल से यह सोच लिया
जाता है इस शॉट के जरिए दोनों पात्रों के भाव भंगिमा और क्रिया प्रतिक्रिया को दर्ज किया जाता है
फेस टू फेस शॉट जब दो व्यक्ति आमने सामने बात करते हैं तो इसमें दोनों ही पात्र साइड से दिखाई जाते हैं और इसमें दोनों कलाकारों का कमर
से ऊपर का हिस्सा दिखाया जाता है
लो एंगल शॉट किसी वस्तु या पात्र को मंडित या शक्तिशाली दिखाने के लिए कैमरे को तुलनात्मक रूप से नीचे रखा जाता है ताकि वह व्यक्ति या वस्तु अपने
सामान्य आकार से ज्यादा बढ़ा और विराट दिखाई दे अक्सर यह एक्शन फिल्मों में हीरो या विलेन को खतरनाक दिखाने के लिए किया जाता है
हाई एंगल शॉट इसमें किसी वस्तु या पात्र को कमरतर या प्रभावहीन दिखाने के लिए कैमरे को तुलनात्मक रूप से ऊपर रखा जाता है ताकि वह व्यक्ति या वस्तु
अपने सामान्य आकार से छोटी और नग्न दिखाई दे

सीन (दृश्य)

शॉटस को एक ही कर्म से जोड़ने पर दृश्य यानी सीन का निर्माण होता है 
चीन से तात्पर्य एक स्थान पर एक समय पर लिए गए सभी शॉटस को 
मिलाकर दृश्य बनता है जैसे किसी फिल्म में घर के अंदर दो व्यक्तियों की 
एक बातचीत चल रही है उनकी उस समय की सारी बातचीत चाहे वह 
कितनी ही देर की क्यों ना चले एक दृश्य है जैसे ही वह उठकर बाहर सड़क 
पर आ जाते हैं वह दूसरा दृश्य बन जाता है

सीक्वेंस (क्रम )

सीक्वेंस से मतलब है कि जब सिनेमा में सभी दृश्य को कहानी के 
क्रम के अनुसार एडिटिंग के समय एक क्रम में लगाया जाता है तो 
उसे क्रम या सीक्वेंस कहते हैं जिस प्रकार शॉट से मिलकर सीन 
बनता है उसी प्रकार सीन से मिलकर सीक्वेंस बनता हैसीक्वेंस से ही 
तय होता है कि फिल्म की कहानी को रोचक ढंग से कहा गया है या नहीं

WATCH VIDEO

सिनेमाई भाषा में प्रकाश संयोजन (लाइट्स)का महत्व

प्रकाश संयोजन द्वारा फिल्मकार अपनी फिल्म की भाषा को और 
प्रभावशाली एवं संप्रेषनीय बनाते हैं किसी भी शॉट में क्या दिखेगा कितना 
दिखेगा और कैसा दिखेगा यह प्रकाश संयोजन पर ही निर्भर करता है 
प्रकाश संयोजन के द्वारा न केवल सिनेमाई भाषा की मारक क्षमता का सुंदर 
प्रयोग होता है बल्कि वह यह भी तय करता है कि दर्शक कहां और कितना देखें
सिनेमा में कई तरह की लाइट का प्रयोग किया जाता है

जैसे
Key Light ,Fill Light, Backlight Side Light, Reverend Light
Butterfly Light Bounce Light, Catch Light, Practical Light,Motivated Light ,Candle Light, Low Light Highlight Etc

सिनेमाई भाषा में पार्श्व ध्वनि संयोजन ( बैकग्राउंड म्यूजिक )का महत्व

बैकग्राउंड साउंड किसी भी शार्ट को प्रमाणिक और यथार्थ बनाते हैं सिनेमा 
के आवासीय था अर्थ वास्तविक अनुभव करवाने में इनका विशेष योगदान 
होता है परिवेश को जीवंत करने वाले बैकग्राउंड साउंड संयोजन जो कि शॉट 
लेने के बाद फिल्म को रियलिस्टिक बनाने के लिए बाद में जोड़ा जाता है
उसे फॉली साउंड भी कहते हैं जैसे दरवाजे की आवाज जूते, घड़ी 
बर्तन ,पानी इत्यादि की आवाज है जो हमारे परिवेश में सहज रूप से 
उपस्थित रहती हैं कई बार शार्ट लेते समय यह बात स्पष्ट रूप से 
कैमरे में रिकॉर्ड नहीं हो पाती इसलिए इन्हें जरूरत के मुताबिक 
नकली चीजों के जरिए बाद में रिकॉर्ड किया जाता है और एडिटिंग के समय शॉट के साथ जोड़ दिया जाता है

सिनेमा के प्रकार - भारतीय सिनेमा में दो प्रकार की फिल्में बनती है 

व्यावसायिक सिनेमा

समानांतर सिनेमा

व्यावसायिक सिनेमा जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है 

एवं समानांतर सिनेमा में किसी भी संजीदा मुद्दे पर यथार्थ वर्ग ढंग से फिल्म को बनाया जाता है

व्यावसायिक सिनेमा 

भारत में हर साल सभी भाषाओं के कुल 1600 से ज्यादा फिल्में रिलीज होती हैं
व्यावसायिक सिनेमा से आशय उन “फार्मूला फिल्मों” से है 
जिनमें एक साथ एक्शन कॉमेडी रोमांस सस्पेंस मेलोड्रामा 
जैसे सारे मसाले डाले जाते हैं इन फार्मूला फिल्मों में दर्शकों की मनोवृति को ध्यान में रखा जाता है
वर्तमान व्यवसायिक सिनेमा में आइटम नंबर हिंसा और उत्तेजक 
दृश्यों की एक खास जगह बन गई है व्यावसायिक सिनेमा में 
फिल्मों का ट्रेंड दर्शकों की पसंद और झुकाव के हिसाब से बदलता 
रहता है जो फिल्म में न केवल संगीत में होती है बल्कि कई बार 
इनके दृश्य अतार्किक भी होते हैं इस तरह के सिनेमा को हम व्यवसायिक सिनेमा कह सकते हैं

समानांतर सिनेमा 

समानांतर सिनेमा से आश्य भारतीय सिनेमा में ऐसे जन सरोकार  
और यथार्थवादी कला से है जिसमें समाज के यथार्थ जीवन का ना 
केवल यथावत फिल्मांकन हुआ बल्कि व्यावसायिक सिनेमा के 
विशुद्ध मनोरंजन और अतिरंजन संयुक्त कहानियों से अलग 
आम जन की कहानियों को प्रमुखता से जगह मिली
1925 में बाबूराव पेंटर की फिल्म “साहूकारी पाश” और उसके बाद आई 1937 
में “दुनिया ना माने” फिल्म को भारत में समानांतर सिनेमा की एकदम 
शुरुआती फिल्म के रूप में देखा जाता है भारतीय सिनेमा में सामाजिक और 
यथार्थवादी आंदोलन के रूप में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म “धरती के 
लाल” 1946 और चेतन आनंद की फिल्म “नीचा नगर” 1946 को देखा जा 
सकता है इन फिल्मों ने उस समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी

WATCH VIDEO

Previous article
Next article

Leave Comments

एक टिप्पणी भेजें

Another website Another website