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Equality Perspective in Education Important Questions BA Programme nep semsester-3 in Hindi

Equality Perspective in Education Important Questions BA Programme nep semsester-3 in Hindi


शिक्षा में समानता का परिप्रेक्ष्य  

सामजिक असमानता 

  • सामाजिक असमानताओं की अवधारणा पर चर्चा करें? बताएं कि भारतीय संविधान द्वारा किस प्रकार सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताओं को संबोधित किया गया है।

परिचय

  • सामाजिक असमानता से तात्पर्य समाज में संसाधनों, अवसरों, अधिकारों और विशेषाधिकारों के असमान वितरण से है। 
  • ये असमानताएँ आर्थिक स्थिति, सामाजिक वर्ग, लिंग, जाति, धर्म, और सांस्कृतिक कारकों के आधार पर उत्पन्न होती हैं। 
  • इनसे सामाजिक भेदभाव, बहिष्कार, और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा राजनीतिक भागीदारी में असमानता होती है।

सामाजिक असमानता के रूप  

  • आर्थिक असमानता: धन, आय और आर्थिक संसाधनों में अंतर।
  • सांस्कृतिक असमानता: जाति, धर्म, लिंग या जातीयता के आधार पर भेदभाव।
  • राजनीतिक असमानता: निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं में असमान प्रतिनिधित्व।
  • शैक्षिक असमानता: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच में अंतर।

भारतीय संविधान द्वारा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताओं का समाधान

1. मौलिक अधिकार (भाग III)

  • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता और कानून का समान संरक्षण सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 15: धर्म, जाति, लिंग, स्थान या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 16: सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 17: छुआछूत को समाप्त करता है और इसके किसी भी रूप को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 19: अभिव्यक्ति और संगठन की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिससे हाशिए पर पड़े वर्ग अपनी चिंताओं को व्यक्त कर सकें।

2. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (भाग IV)

  • अनुच्छेद 38: कल्याणकारी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने और असमानताओं को कम करने का निर्देश देता है।
  • अनुच्छेद 39: आजीविका के पर्याप्त साधन, संसाधनों का समान वितरण, और समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST), और कमजोर वर्गों की शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देता है।

3. आरक्षण नीति

  • अनुच्छेद 15(4) और 16(4): राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, SC और ST के लिए शिक्षा और रोजगार में विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
  • अनुच्छेद 330 और 332: संसद और राज्य विधानसभाओं में SC और ST के लिए सीटों का आरक्षण।

4. सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन

  • अनुच्छेद 23: मानव तस्करी, बंधुआ मज़दूरी और बेगार को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 24: ख़तरनाक उद्योगों में बाल श्रम को रोकता है।

5. सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (अनुच्छेद 29-30)

  • अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति, भाषा, और लिपि को संरक्षित करने का अधिकार प्रदान करता है।
  • अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार देता है।

6. कल्याणकारी उपाय

  • अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) जैसे कानून सकारात्मक कदमों के माध्यम से असमानता को संबोधित करते हैं।

पूर्व-औपनिवेशिक काल की शिक्षा प्रणाली

पूर्व-औपनिवेशिक युग में शिक्षा प्रणाली का आलोचनात्मक परीक्षण करें।

परिचय

  • अक्सर यह कहा जाता है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन  है    लेकिन ऐसा नहीं है भारत में शिक्षा वैदिक काल से ही प्रमुख रही है 
  • भारत में विदेशों से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे 
  • पूर्व -औपनिवेशिक भारत में शिक्षा प्रणाली सांस्कृतिक, धार्मिक और सामुदायिक परंपराओं में गहराई से निहित थी। 
  • भारत में व्याकरण , धर्म , तर्क ,शास्त्र ,साहित्य पढ़ा जाता था 

शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ

1. शिक्षा संस्थान:- 

  • ये आवासीय विद्यालय थे, जहाँ छात्र गुरु के साथ रहते थे। यहाँ वैदिक अध्ययन, दर्शन और नैतिकता पर जोर दिया जाता था।

पाठशालाएँ :- 

  • गाँवों में लड़कों के लिए स्कूल, जहाँ पढ़ना, लिखना, गणित और स्थानीय भाषाओं की शिक्षा दी जाती थी। 
  • ये प्रायः अनौपचारिक और सामुदायिक वित्त पोषित होती थीं।

मदरसे और मकतब :-

  • इस्लामी शिक्षा के केंद्र, जहाँ कुरान का अध्ययन, अरबी, फारसी, गणित, ज्योतिष और कानून पढ़ाए जाते थे।

मंदिर और मठ: 

  • बौद्ध मठ (जैसे नालंदा और विक्रमशिला) और हिंदू मंदिर उच्च शिक्षा के केंद्र के रूप में कार्य करते थे।

पाठ्यक्रम:

  • धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, कुरान, आदि पर आधारित था।
  • व्यावहारिक विषय जैसे गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, तर्क, व्याकरण, और कला शामिल थे।
  • हस्तशिल्प, कृषि और व्यापार जैसे व्यावसायिक कौशल सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुसार सिखाए जाते थे।

शिक्षण विधियाँ :-

  • मौखिक परंपरा: - ज्ञान को मौखिक रूप से याद कर और सुनाकर आगे बढ़ाया जाता था, विशेषकर वैदिक अध्ययन में।
  • लिखित ग्रंथ: - उन्नत छात्रों के लिए हस्तलिखित पांडुलिपियों और टीकाओं का उपयोग किया जाता था।
  • गुरु-शिष्य संबंध:- शिक्षा व्यक्तिगत थी और नैतिक मार्गदर्शन पर जोर दिया जाता था।

संरचना और पहुँच:

  • स्थानीय और लचीली प्रणाली थी, जो सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित थी।
  • विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लिए शिक्षा: यह प्रणाली मुख्यतः ऊँची जातियों और धनी वर्गों तक सीमित थी।
  • लैंगिक असमानता: महिलाओं के लिए शिक्षा के अवसर दुर्लभ थे, सिवाय कुछ कुलीन परिवारों या धार्मिक संस्थानों के।

वित्त पोषण:

  • मुख्यतः सामुदायिक योगदान, धनी संरक्षक, या धार्मिक संस्थानों से वित्तपोषित।
  • गुरुकुल और मठ राजाओं, व्यापारियों और जमींदारों के दान पर निर्भर रहते थे।

पूर्व-औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की ताकतें

1. सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण:

  • भारतीय संस्कृति, परंपराओं और धार्मिक प्रथाओं की निरंतरता को बनाए रखा।
  • स्थानीय भाषाओं और बोलियों को क्षेत्रीय शिक्षा के माध्यम से संरक्षित किया।

2. व्यावसायिक और व्यवहारिक प्रशिक्षण:

  • हस्तशिल्प, कृषि और व्यापार कौशल सिखाकर स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा किया।

3. नैतिक और आध्यात्मिक आधार:

  • आध्यात्मिक विकास, अनुशासन और शिक्षकों के प्रति सम्मान पर जोर दिया।
  • सामुदायिक और कर्तव्य की भावना को बढ़ावा दिया।

4. सामुदायिक दृष्टिकोण:

  • विकेन्द्रीकृत प्रकृति ने सुनिश्चित किया कि शिक्षा स्थानीय संदर्भों और सांस्कृतिक प्रथाओं के अनुकूल हो।

5. उत्कृष्टता के केंद्र:

  • नालंदा और तक्षशिला जैसे संस्थान वैश्विक ज्ञान केंद्र बन गए, जो दुनिया भर के विद्वानों को आकर्षित करते थे।

पूर्व-औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की सीमाएँ

1. सामाजिक बहिष्करण:

  • शिक्षा ऊँची जातियों तक सीमित थी, जिससे दलितों, हाशिए के समूहों और अधिकांश महिलाओं को बाहर रखा गया।
  • जाति व्यवस्था ने असमानता को बढ़ावा दिया, जिससे कई लोगों के लिए शिक्षा की पहुँच सीमित हो गई।

2. लैंगिक असमानता:

  • बहुत कम महिलाओं को शिक्षा मिलती थी, और जो मिलती थी, वे मुख्यतः कुलीन परिवारों या धार्मिक आदेशों से होती थीं।

3. विकेंद्रीकरण और असंगठित संरचना:

  • केंद्रीय प्राधिकरण की अनुपस्थिति के कारण पाठ्यक्रम, मानकों या मूल्यांकन में एकरूपता की कमी थी।
  • शिक्षा की गुणवत्ता क्षेत्र और संस्थानों के अनुसार भिन्न होती थी।

4. धर्म पर अत्यधिक ज़ोर:

  • धार्मिक और आध्यात्मिक अध्ययन हावी थे, जबकि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अर्थशास्त्र जैसे विषयों की उपेक्षा की गई।
  • पाठ्यक्रम वैषयिक प्रगति और बदलती सामाजिक आवश्यकताओं को अपनाने में धीमा था।

5. संरक्षण पर निर्भरता:

  • शिक्षा राजा, कुलीनों या धनी व्यक्तियों के समर्थन पर बहुत अधिक निर्भर थी, जिससे यह राजनीतिक अस्थिरता के प्रति संवेदनशील बन गई।

6. व्यवहारिक अनुप्रयोग की कमी:

  • व्यावसायिक शिक्षा मौजूद थी, लेकिन इसे मुख्य धारा की शिक्षा में व्यवस्थित रूप से शामिल नहीं किया गया।
  • वैज्ञानिक और अनुभवजन्य विधियाँ कम विकसित थीं।

7. महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं:

  • शिक्षा प्रणाली ने पितृसत्तात्मक मूल्यों को मजबूत किया, जिससे महिलाओं की बौद्धिक या व्यावसायिक क्षेत्रों में भूमिका सीमित हो गई।

प्रमुख उदाहरण

1. नालंदा विश्वविद्यालय:

  • बिहार में स्थित एक प्रमुख बौद्ध मठ और शैक्षिक केंद्र, जहाँ विभिन्न विषयों में उच्च अध्ययन कराया जाता था।
  • चीन, तिब्बत, कोरिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था।

2. तक्षशिला विश्वविद्यालय:

  • वर्तमान पाकिस्तान में स्थित, यह चिकित्सा, कानून, सैन्य रणनीति और दर्शन जैसे विषयों के लिए उच्च शिक्षा का केंद्र था।

3. गाँव की पाठशालाएँ:

  • बुनियादी साक्षरता और अंकगणित सिखाने पर ध्यान केंद्रित करती थीं, और लड़कों के लिए प्राथमिक शिक्षा के अनौपचारिक केंद्र के रूप में कार्य करती थीं।

4. मदरसे:

  • इस्लामी शिक्षा के प्रमुख संस्थान, जो धार्मिक और प्रशासनिक विज्ञान में निपुण विद्वानों को तैयार करते थे।

आधुनिक शिक्षा से तुलना

1. समावेशिता:

  • पूर्व-औपनिवेशिक प्रणाली के विपरीत, आधुनिक शिक्षा सभी को जाति या लिंग की परवाह किए बिना पहुँच प्रदान करने का प्रयास करती है।

2. केंद्रीकरण:

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली पाठ्यक्रम और नीतियों के साथ मानकीकृत है, जबकि पूर्व-औपनिवेशिक प्रणाली खंडित और स्थानीय थी।

3. धर्मनिरपेक्षता:

  • पूर्व-औपनिवेशिक शिक्षा गहराई से धार्मिक थी, जबकि आधुनिक शिक्षा अधिक धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक ज्ञान पर केंद्रित है।


समाज में असमानता 

दलित साहित्य 

असमानता को दूर करने में साहित्य की भूमिका 

असमानताओं को दूर करने के एक उपकरण के रूप में साहित्य की भूमिका पर आलोचनात्मक टिप्पणी करें।

दलित साहित्य: 1950 और 1960 के दशक की साहित्यिक प्रवृत्ति

1. परिचय:

  • 1950 और 1960 के दशक में दलित साहित्य के रूप में एक नई साहित्यिक प्रवृत्ति उभरी।
  • यह प्रवृत्ति विशेष रूप से मराठी भाषा में मजबूत हुई।
  • दलित पैंथर्स, एक वंचित समूह, ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2. दलित शब्द का निर्माण:

  • आंदोलन के कवियों और लेखकों ने अछूत और हरिजन शब्दों की जगह दलित शब्द का उपयोग किया।

3. प्रमुख योगदानकर्ता:

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर (1891-1956):

  • उन्होंने 1960 के दशक में दलित लेखन की शुरुआत की।

उनके प्रकाशन:

जनता पत्रिका

प्रबुद्ध भारत

मूक-नायक

  • इन पत्रिकाओं ने अछूतों पर आधारित कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित कीं।

मराठी लेखक वंठू माधव:

  • उनकी रचनाएँ दलितों के जीवन की वास्तविकताओं को उजागर करती थीं।

4. आंदोलन का विस्तार:

  • दलित साहित्य और आंदोलन पूरे भारत में तेजी से फैला।
  • यह साहित्य सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से प्रेरित था।

5. प्रेरणास्रोत:

  • डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले, और पेरियार ने दलित सामाजिक और साहित्यिक आंदोलनों की नींव रखी।


ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा 

जूठन 

दलित साहित्य का उद्देश्य

1. जाति-व्यवस्था की आलोचना:

  • जाति आधारित भेदभाव और सामाजिक असमानता को चुनौती देना।

2. समानता की माँग:

  • दलित समुदायों के लिए समान अधिकार और गरिमापूर्ण जीवन की माँग करना।

3. स्वाभिमान और पहचान:

  • दलितों के आत्म-सम्मान और सांस्कृतिक पहचान को पुनः स्थापित करना।

4. सामाजिक जागरूकता:

  • समाज में व्याप्त अन्याय और भेदभाव को उजागर करके लोगों को जागरूक करना।

दलित साहित्य की विशेषताएँ

1. अनुभव की सच्चाई:

  • दलित साहित्य वास्तविक अनुभवों और संघर्षों पर आधारित है। इसमें पीड़ा, उत्पीड़न, और असमानता को बिना किसी आडंबर के प्रस्तुत किया जाता है।
  • यह दलितों के जीवन की कठिनाइयों और उनके भीतर छिपे साहस और आत्म-सम्मान को दर्शाता है।

2. विद्रोह और प्रतिरोध:

  • दलित साहित्य सिर्फ पीड़ा का चित्रण नहीं है, बल्कि यह एक विद्रोह है, जो अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देता है।
  • यह साहित्य जाति-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा होता है।

3. समानता और गरिमा का संदेश:

  • दलित साहित्य समानता और गरिमा के अधिकार की माँग करता है।
  • यह जाति के आधार पर विभाजित समाज को एक समावेशी समाज बनाने की प्रेरणा देता है।

4. नवीन दृष्टिकोण:

  • दलित साहित्य सामाजिक मुद्दों को दलित दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है, जो पारंपरिक साहित्य से भिन्न है।
  • यह समाज में दलित समुदायों की वास्तविक स्थिति को सामने लाता है।

महत्वपूर्ण लेखक और रचनाएँ

1. डॉ. भीमराव अंबेडकर:

  • उनके लेख और भाषण, जैसे एनिहिलेशन ऑफ कास्ट, दलित साहित्य के महत्वपूर्ण आधार हैं।
  • उन्होंने जाति-प्रथा की बुराइयों को उजागर किया और दलित समुदाय के अधिकारों की वकालत की।

2. ओमप्रकाश वाल्मीकि:

  • उनकी आत्मकथा जूठन दलित साहित्य का प्रमुख उदाहरण है, जो दलित जीवन की कठिनाइयों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करती है।

3. जयप्रकाश कर्दम:

  • उपन्यास छप्पर जातिगत उत्पीड़न और दलित संघर्ष को प्रभावशाली ढंग से दर्शाता है।

4. शरण कुमार लिंबाले:

  • उनकी आत्मकथा अक्करमाशी दलित साहित्य का एक और प्रसिद्ध उदाहरण है, जो दलित जीवन के अनुभवों को ईमानदारी से प्रस्तुत करती है।

5. कौशल्या बैसंत्री:

  • उनकी कृति दोहरा अभिशाप दलित महिलाओं के संघर्षों को उजागर करती है।


समावेशी शिक्षा 

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा वक्तगत की गई समावेशी शिक्षा की अवधारणा को समझाएँ। उदाहरणों के साथ चर्चा करें कि स्कूल समावेशी प्रथाओं को कैसे अपना सकते हैं।
  • स्कूल एक समावेशी वातावरण बना सकता है जहाँ विविध पृष्ठभूमि और विभिन्न क्षमताओं वाले बच्चे एक साथ सीखते हैं। उदाहरण सहित समझाइए।

समावेशी शिक्षा 

  • समावेशी शिक्षा एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है 
  • जो सभी बच्चों, चाहे उनकी भौतिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक स्थिति कैसी भी हो, को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करती है।

समावेशी शिक्षा का उद्देश्य 

  • वंचित, विकलांग, और हाशिए पर रहने वाले बच्चों को मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल करना है। 
  • यह शिक्षा की प्रक्रिया को इतना लचीला बनाती है कि हर बच्चे की जरूरतों को पूरा किया जा सके।

भारत में विकास  

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) 2009: 

  • यह कानून 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है, जिसमें विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे भी शामिल हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020:

  • इसमें समावेशी शिक्षा को और अधिक मजबूती से लागू करने पर जोर दिया गया है।

समावेशी शिक्षा के प्रमुख सिद्धांत

1. सभी के लिए समान अवसर:

  • शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • सभी बच्चों को उनकी क्षमता के अनुसार सीखने का अवसर मिलना चाहिए।

2. सम्मान और गरिमा:

  • हर बच्चे का सम्मान करना और उसकी गरिमा को बनाए रखना आवश्यक है।
  • यह मानसिक और भावनात्मक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

3. शिक्षा का लचीला दृष्टिकोण:

  • पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों को बच्चों की विविध आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करना।
  • विभिन्न सीखने की शैलियों और क्षमताओं को ध्यान में रखना।

4. सहयोग और सहभागिता:

  • शिक्षकों, अभिभावकों, समुदाय और बच्चों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना।
  • एक सकारात्मक और सहयोगी शिक्षण वातावरण बनाना।


समावेशी शिक्षा के लाभ 

1. समान अवसर का अधिकार:

  • हर बच्चे को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर मिलता है।
  • यह किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करता है।

2. समाज में समरसता:

  • विभिन्न पृष्ठभूमियों और क्षमताओं के बच्चों को साथ में पढ़ने का मौका मिलता है, जिससे समाज में समावेशी सोच का विकास होता है।
  • यह बच्चों में सहनशीलता और सहयोग की भावना विकसित करता है।

3. व्यक्तिगत विकास:

  • यह बच्चों के आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, और रचनात्मकता को बढ़ावा देता है।
  • बच्चे अपनी क्षमताओं को पहचानते हैं और अपने लिए नए अवसरों की तलाश करते हैं।

4. भेदभाव के खिलाफ प्रभावी कदम:

  • समावेशी शिक्षा बच्चों को समाज में व्याप्त भेदभाव, असमानता, और सामाजिक पूर्वाग्रहों को चुनौती देने के लिए प्रेरित करती है।

5. विकासशील समाज का निर्माण:

  • समावेशी शिक्षा एक ऐसा समाज बनाने में मदद करती है जो समानता, न्याय, और मानवाधिकारों का पालन करता है।


समावेशी शिक्षा के प्रकार  

1. विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा:

  • शारीरिक, मानसिक, और संवेदनशील विकलांग बच्चों को मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल करना।
  • इनके लिए विशेष उपकरण और तकनीकी सहायक साधनों की व्यवस्था।

2. वंचित वर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा:

  • सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों को समान शिक्षा का अवसर देना।
  • उनकी विशेष ज़रूरतों को समझकर सहायक नीतियाँ लागू करना।

3. लिंग आधारित समावेशी शिक्षा:

  • लड़कियों को शिक्षा में शामिल करना और उन्हें भेदभाव से मुक्त वातावरण प्रदान करना।

4. सांस्कृतिक और भाषाई विविधता का सम्मान:

  • अलग-अलग भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के बच्चों को समान रूप से शिक्षा प्रदान करना।


समावेशी शिक्षा की चुनौतियाँ 

1. संसाधनों की कमी:

  • विशेष उपकरण, प्रशिक्षित शिक्षक, और स्कूलों में सुविधाओं की कमी।
  • विकलांग बच्चों के लिए आवश्यक भौतिक संसाधनों का अभाव।

2. शिक्षकों की प्रशिक्षण की कमी:

  • शिक्षकों को विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को पढ़ाने का अनुभव या प्रशिक्षण नहीं होता।

3. सामाजिक रूढ़ियाँ और पूर्वाग्रह:

  • विकलांग और वंचित बच्चों को लेकर समाज में अभी भी नकारात्मक सोच और भेदभाव मौजूद है।

4. आर्थिक समस्याएँ:

  • गरीब बच्चों के लिए शिक्षा का खर्च वहन करना मुश्किल होता है।

5. नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन:

  • समावेशी शिक्षा के लिए बनाई गई नीतियों और योजनाओं का उचित क्रियान्वयन न होना।

निष्कर्ष –

समावेशी शिक्षा एक ऐसी प्रणाली है जो हर बच्चे को शिक्षा का समान अधिकार प्रदान करती है। यह न केवल शिक्षा का माध्यम है, बल्कि समाज में समानता, न्याय, और समरसता की भावना को विकसित करने का साधन भी है। समावेशी शिक्षा से बच्चों को केवल शैक्षिक लाभ नहीं मिलता, बल्कि वे सहयोग, सहिष्णुता, और एक-दूसरे का सम्मान करना सीखते हैं। इसके सफल क्रियान्वयन के लिए सरकार, समाज, शिक्षकों, और अभिभावकों को मिलकर प्रयास करना होगा। समावेशी शिक्षा के माध्यम से ही हम एक बेहतर, प्रगतिशील, और समानतापूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं।


अपवर्जित समूह के विद्यार्थी 

अवसरवंचित समूहों के शिक्षार्थियों के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों की व्याख्या करें?

अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्र – 

  • अनुसूचित जाति (SC), 
  • अनुसूचित जनजाति (ST)
  • अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)

धार्मिक अल्पसंख्यक 

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग

हालांकि, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), धार्मिक अल्पसंख्यक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जैसे अपवर्जित पृष्ठभूमि वाले समुदायों से आने वाले छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने और उसकी गुणवत्ता में कई प्रकार की चुनौतियों  का सामना करना पड़ता है।

अपवर्जित समूह  के छात्रों के लिए शिक्षा की पहुंच में प्रमुख चुनौतियां  - 

  • आर्थिक बाधाएं –
  • सामाजिक बाधाएं –
  • भौगोलिक बाधाएं –
  • सांस्कृतिक और भाषाई बाधाएं –

1. आर्थिक बाधाएं –

  • गरीबी - अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्रों के परिवार अक्सर अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष करते हैं। स्कूल की फीस, वर्दी, किताबें और परिवहन जैसी लागतें शिक्षा के रास्ते में बड़ी बाधा बनती हैं।
  • बाल मजदूरी- कई बच्चे परिवार की आय में मदद करने के लिए काम करने को मजबूर होते हैं, जिससे स्कूल जाना उनके लिए संभव नहीं हो पाता।  

2 . सामजिक बाधाएं –

  • भेदभाव और बहिष्करण: अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्र स्कूलों में सहपाठियों, शिक्षकों और समाज के भेदभाव का सामना करते हैं। जिस कारन वे स्कूल छोड़ देते हैं।  
  • लिंग असमानता: अपवर्जित पृष्ठभूमि की लड़कियों को अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे कि जल्दी शादी, घरेलू जिम्मेदारियां और परिवार का शिक्षा के प्रति समर्थन न होना।  

३. भौगोलिक बाधाएं –

  • दूरदराज के इलाकों में स्कूलों की कमी:- ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में स्कूल अक्सर घर से बहुत दूर होते हैं, जिससे बच्चों, खासकर लड़कियों के लिए नियमित रूप से स्कूल जाना मुश्किल हो जाता है। 
  • शहरी झुग्गियां और अस्थायी बस्तियां: शहरी इलाकों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को स्कूलों में भीड़भाड़ और सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ता है।

4. सांस्कृतिक और भाषाई बाधाएं –

  • भाषा की समस्या - अपवर्जित पृष्ठभूमि समुदाय अक्सर अपनी क्षेत्रीय या जनजातीय भाषा बोलते हैं, जबकि स्कूलों में मुख्य रूप से हिंदी या अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है, जिससे बच्चों को पढ़ाई समझने में कठिनाई होती है।  
  • सांस्कृतिक असंवेदनशीलता: स्कूल का पाठ्यक्रम इनकी सांस्कृतिक धरोहर और अनुभवों को अक्सर नज़रअंदाज करता है, जिससे शिक्षा उन्हें असंबद्ध लगती है।

अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए शिक्षा की गुणवत्ता

  • खराब बुनियादी ढांचा अपर्याप्त सुविधाएं:- स्कूलों में अक्सर कक्षा-कक्ष, शौचालय (खासतौर पर लड़कियों के लिए), स्वच्छ पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी होती है।  
  • भीड़भाड़ वाले स्कूल:- उच्च छात्र-शिक्षक अनुपात के कारण शिक्षकों के लिए छात्रों की व्यक्तिगत जरूरतों पर ध्यान देना कठिन हो जाता है। 

शिक्षकों की कमी, अपर्याप्त या अनुपस्थित शिक्षक: 

  • इन स्कूलों में प्रशिक्षित और प्रेरित शिक्षकों की कमी होती है। 
  • ग्रामीण इलाकों में शिक्षक अनुपस्थित रहना भी एक बड़ी समस्या है।  

शिक्षकों का पक्षपात: 

शिक्षक अक्सर अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्रों के प्रति भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं, जिससे छात्रों का आत्मविश्वास और सहभागिता कम हो जाती है।

अप्रासंगिक पाठ्यक्रम  ( समाज के अनुकूल नहीं )

  • पाठ्यक्रम अक्सर इन समुदायों की अनूठी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करता है।  
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण का अभाव: इन छात्रों को कौशल आधारित शिक्षा नहीं मिलती, जो उनकी रोजगार क्षमता में सुधार कर सके।  

उच्च ड्रॉपआउट दर  ( सामाजिक और आर्थिक दबाव)

  • आर्थिक दबाव, पारिवारिक जिम्मेदारियों और शिक्षा की कम प्रासंगिकता के कारण कई छात्र स्कूल छोड़ देते हैं।
  • समर्थन तंत्र की कमी: - स्कूल संघर्षरत छात्रों को सलाह देने, प्रेरित करने या उनके लिए विशेष कार्यक्रम चलाने में असमर्थ रहते हैं।  


सरकारी नीतियां और प्रयास

अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्रों  की समस्याओं को हल करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं:

1) शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), 2009  

  • 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य 
  • शिक्षा का अधिकार देता है।  निजी स्कूलों में 25% सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए आरक्षित हैं।  

मिड-डे मील योजना  -

  • सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में बच्चों को मुफ्त भोजन प्रदान करती है।  स्कूल उपस्थिति बढ़ाने और बच्चों की पोषण स्थिति सुधारने में मदद करती है।  

छात्रवृत्ति और वित्तीय सहायता  -

  • एससी/एसटी/ओबीसी और अल्पसंख्यक छात्रों के लिए विभिन्न छात्रवृत्तियां उपलब्ध हैं, जो उनके परिवारों की आर्थिक बोझ कम करती हैं।  

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना  

  • विशेष रूप से हाशिये पर मौजूद समुदायों की लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देती है।  

एससी/एसटी और अल्पसंख्यकों पर ध्यान  

  • अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष योजनाएं और मदरसे जैसे संस्थानों को मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल करने के प्रयास किए गए हैं।


सरकार के  प्रयासों के बावजूद मौजूद चुनौतियां

नीतियों के कार्यान्वयन में समस्याएं  

  • अपवर्जित पृष्ठभूमि के छात्रों  के लिए आवंटित धनराशि का दुरुपयोग होता है।  

सामाजिक जागरूकता की कमी  

  • कई परिवार शिक्षा के महत्व और सरकारी योजनाओं के लाभ से अनजान हैं।  
  • माता-पिता की शिक्षा की कमी के कारण बच्चों को स्कूल भेजने की प्रेरणा नहीं मिलती।  


लिंग और जेंडर 

लिंग और जेंडर के बीच अंतर करें। इस बात पर विस्तार से बताएं कि लैंगिक पूर्वाग्रहों के परिणामस्वरूप शिक्षा में लिंग आधारित भेदभाव कैसे होता है?

लिंग SEX

  • लिंग कुदरती हैं।
  • यह एक जैविक शब्द है जो स्पष्ट जननांग भेदों के साथ-साथ प्रजनन प्रक्रियाओं में अंतर को दर्शाता है।
  • यह सार्वभौमिक है, और हर जगह समान रहता है।
  • इसे चिकित्सा हस्तक्षेप के बिना नहीं बदला जा सकता है।

जेंडर Gender

  • जेंडर सामाजिक-सांस्कृतिक निर्माण है।
  • यह पुरुष  और स्त्री गुणों, व्यवहार, भूमिकाओं को संदर्भित करता है।
  • जेंडर परिवर्तनशील है, यह समय-समय पर बदलता रहता है, संस्कृति से संस्कृति, यहाँ तक कि परिवार से परिवार तक ।
  • यह सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिकाओं, व्यवहारों, अपेक्षाओं और पहचान को दर्शाता है जो पुरुष या महिला होने से जुड़ी होती हैं।
  • यह लचीला होता है और समय और संस्कृतियों के साथ बदलता है

लिंग पूर्वाग्रह और शिक्षा में लिंग आधारित भेदभाव –

  • लिंग पूर्वाग्रह का मतलब उन पूर्व निर्धारित धारणाओं या रूढ़ियों से है जो किसी व्यक्ति की भूमिका और क्षमता को उसके लिंग के आधार पर आंकते हैं। 
  • शिक्षा के संदर्भ में, ये पूर्वाग्रह अक्सर छात्रों के लिए असमान अवसर, संसाधन, और परिणाम पैदा करते हैं, जिससे लिंग आधारित भेदभाव होता है।

रूढ़िवादिता और अपेक्षाएँ

  • पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण: शिक्षकों, माता-पिता और समाज में यह धारणा होती है कि लड़के गणित और विज्ञान में अच्छे होते हैं जबकि लड़कियाँ कला या मानविकी में बेहतर होती हैं।
  • प्रभाव: लड़कियों को STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) क्षेत्रों में करियर बनाने से हतोत्साहित किया जाता है, जबकि लड़कों को "महिला प्रधान" क्षेत्रों जैसे नर्सिंग या शिक्षण में रुचि दिखाने पर तिरस्कार झेलना पड़ता है।

शिक्षा तक असमान पहुँच

  • लड़कों को प्राथमिकता: कई संस्कृतियों में परिवार सीमित संसाधनों के कारण लड़कों की शिक्षा को लड़कियों से अधिक प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि लड़कों को भविष्य का कमाने वाला माना जाता है।
  • प्रभाव: लड़कियाँ स्कूल छोड़ने या कभी स्कूल न जाने की संभावना ज्यादा रखती हैं, जिससे महिलाओं में निरक्षरता दर बढ़ती है।

पाठ्यक्रम और किताबों में पूर्वाग्रह

  • लिंग आधारित सामग्री: स्कूल की किताबों में अक्सर पुरुषों को नेतृत्व की भूमिकाओं में और महिलाओं को देखभाल या घरेलू भूमिकाओं में दिखाया जाता है।
  • प्रभाव: यह पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को मजबूत करता है और विशेष रूप से लड़कियों की महत्वाकांक्षाओं को सीमित करता है, जो खुद को विविध या सशक्त भूमिकाओं में नहीं देख पातीं।

शिक्षकों का पूर्वाग्रह और कक्षा का वातावरण

  • अंतरपूर्ण व्यवहार: शिक्षक अनजाने में लड़कों को अधिक ध्यान दे सकते हैं, विशेष रूप से गणित और विज्ञान में, या कक्षा चर्चा में उन्हें अधिक बार शामिल कर सकते हैं।
  • प्रभाव: लड़कियाँ कम आत्मविश्वासी महसूस करती हैं, जिससे उनकी भागीदारी और प्रदर्शन में कमी आती है।

स्कूल का बुनियादी ढाँचा और सुरक्षा

  • अपयुक्त सुविधाएँ: लड़कियों के लिए अलग शौचालय जैसी सुविधाओं की कमी उनके स्कूल जाने को हतोत्साहित करती है, खासकर मासिक धर्म के दौरान।
  • प्रभाव: किशोरियों के बीच स्कूल छोड़ने की दर बढ़ती है।
  • सुरक्षा चिंताएँ: उत्पीड़न या असुरक्षित वातावरण का डर लड़कियों को नियमित रूप से स्कूल जाने से रोकता है।

बाल विवाह और बाल श्रम

  • सांस्कृतिक मान्यताएँ: लिंग पूर्वाग्रह इस धारणा को बढ़ावा देते हैं कि लड़की का मुख्य कर्तव्य विवाह करना और घर संभालना है, जिससे उसकी शिक्षा जल्दी समाप्त हो जाती है।
  • आर्थिक दबाव: गरीब परिवारों में लड़कियों को घरेलू कामकाज या श्रम में योगदान देने के लिए स्कूल से बाहर कर दिया जाता है, जिससे शैक्षिक असमानता बढ़ती है।

महिला रोल मॉडल की कमी

  • प्रतिनिधित्व का अभाव: शिक्षकों, प्रधानाचार्यों, या प्रशासकों के रूप में कम महिलाओं की उपस्थिति युवा लड़कियों को ऐसी भूमिकाएँ अपनाने के लिए प्रेरित नहीं कर पाती।
  • प्रभाव: लड़कियाँ खुद को सशक्त भूमिकाओं में देखने में असमर्थ होती हैं, जिससे उनकी महत्वाकांक्षाएँ और आत्मविश्वास सीमित होता है।

निष्कर्ष

लिंग पूर्वाग्रह शिक्षा में प्रणालीगत असमानताओं को बढ़ावा देते हैं, जिससे लड़के और लड़कियां दोनों प्रभावित होते हैं, लेकिन लड़कियों पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता है। इन पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए लिंग-संवेदनशील नीतियों, संसाधनों का समान वितरण, शिक्षकों का प्रशिक्षण, समावेशी पाठ्यक्रम, और रूढ़ियों को चुनौती देने के लिए जागरूकता अभियान की आवश्यकता है।


CWSN CHILDREN 

  • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँचने में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (सीडब्ल्यूएसएन) के सामने आने वाली चुनौतियों का पता लगाएँ।
  • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (CWSN) द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियाँ
  • विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (Children with Special Needs - CWSN) को शिक्षा तक पहुँचने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो उनके सीखने, विकास और समाज में पूर्ण रूप से भाग लेने की क्षमता को बाधित करती हैं।

अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा

  • सुविधाओं की कमी: स्कूलों में रैंप, लिफ्ट, अनुकूलित शौचालय या शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए सुलभ कक्षाएँ नहीं होतीं।
  • सहायक उपकरणों की कमी: सुनने वाले यंत्र, ब्रेल सामग्री या मोबिलिटी एड्स की कमी से सीखने के अवसर सीमित हो जाते हैं।
  • परिवहन की समस्या: सुलभ और किफायती परिवहन के अभाव में CWSN नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाते।

प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी

  • विशेष शिक्षा का अभाव: अधिकांश शिक्षक विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की विविध जरूरतों, जैसे सीखने की अक्षमता, ऑटिज्म, या दृष्टि/श्रवण बाधा को समझने और संभालने में प्रशिक्षित नहीं होते।
  • व्यक्तिगत ध्यान की कमी: बड़ी कक्षाओं और सीमित समझ के कारण CWSN को व्यक्तिगत ध्यान नहीं मिल पाता।

सामाजिक कलंक और भेदभाव

  • नकारात्मक दृष्टिकोण: कई समुदाय CWSN को अक्षम मानते हैं, जिससे उन्हें स्कूलों से बाहर रखा जाता है।
  • उपहास : CWSN अक्सर अपने साथियों द्वारा उपहास का शिकार होते हैं, जिससे उनका आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
  • माता-पिता की झिझक: कलंक या जागरूकता की कमी के कारण कुछ माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से बचते हैं।

आर्थिक बाधाएँ

  • शिक्षा का खर्च: विशेष शिक्षा, सहायक उपकरण, या थेरेपी महंगे होते हैं, जिन्हें कई परिवार वहन नहीं कर पाते।
  • सरकारी सहायता पर निर्भरता: सीमित सरकारी सहायता अक्सर CWSN की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने में विफल रहती है।

पाठ्यक्रम और मूल्यांकन में बाधाएँ

  • कठोर पाठ्यक्रम: मानकीकृत पाठ्यक्रम अक्सर CWSN की सीखने की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होते, खासकर जिन बच्चों को बौद्धिक अक्षमता होती है।
  • अवास्तविक मूल्यांकन पद्धतियाँ: परीक्षाएँ और मूल्यांकन शायद ही CWSN को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं, जिससे उनका प्रदर्शन कमजोर रहता है और वे हतोत्साहित होते हैं।

जागरूकता की कमी

  • जागरूकता की कमी: माता-पिता, शिक्षकों और प्रशासकों को CWSN के अधिकारों और क्षमताओं की जानकारी नहीं होती, जैसे शिक्षा का अधिकार अधिनियम या माध्यमिक स्तर पर विकलांगों के लिए समावेशी शिक्षा
  • नीतियों का खराब कार्यान्वयन: समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ अक्सर खराब तरीके से लागू होती हैं क्योंकि निगरानी और जवाबदेही की कमी होती है।

तकनीकी बाधाएँ

  • शैक्षिक तकनीक तक सीमित पहुँच:  कई CWSN महंगे या जटिल शिक्षण उपकरणों का उपयोग नहीं कर पाते।
  • डिजिटल अंतर:  ग्रामीण या निम्न-आय वाले क्षेत्रों में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए उनकी जरूरतों के अनुसार डिजिटल शिक्षण उपकरणों तक पहुँच मुश्किल होती है।


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